ये तुम्हारा
भरम है कि वे गुलाब रक्खेंगे
मंजिल
से ठीक पहले वे सैलाब रक्खेंगे
हकीकत
कही तुमसे रूबरू न हो जाये
तुम्हारे पलको पर अब वे ख्वाब
रक्खेंगे
औंधे पडे मिलेंगे तुम्हारे सवालो के तेवर
चाशनी से लिपटे जब वे जवाब
रक्खेंगे
रख दो अपनी खिलाफत ताक पर तुम
खिदमत में वे कबाब और शराब
रक्खेंगे
उनकी मासूमियत पर यकीन कर लेंगे
जब वे अपनी नज़रो में तालाब
रक्खेंगे
लाजिमी है इस चमन का यू ही मुरझाना
जब इनकी जडो में आप तेजाब रक्खेंगे
इनकी नज़रो के आंसू भी थम जायेंगे
गर आप भी अपनी आंखो मे आब रखेंगे





1 comment:
आपने आपकी कविता से दिखा दिया कि हर मुस्कान के पीछे इरादे कितने उलझे हो सकते हैं। रिश्ते वैसे ही टूटते नहीं, हम खुद धीरे-धीरे उन्हें नष्ट करते हैं। आख़िरी शेर फिर उम्मीद भी दे देता है की अगर हम अपनी आँखों में थोड़ी नरमी रख लें, तो शायद चीज़ें बदल सकें।
Post a Comment