Friday, July 17, 2009

मैंने भी चलायी ----

चलना और चलाना
दो अलग बात है
गलना और गलाना
दो अलग बात है
चलाने पर चल जाए
जरूरी नहीं
गलाने पर गल जाए
जरूरी नहीं
स्वतः ही चल जाए
तो चला लीजिये
दाल आसानी से गल जाए तो
गला लीजिये
.
मेरे मित्र रवि जी
अग्रज 'शैल जी' की कविता
'चल गयी' सुनाते हैं
और आसानी से लोकप्रियता
भुनाते हैं
पिछले दिनों इनकी खूब चली
आपको खले न खले
मुझे बहुत खली
चल गयी सुनाते सुनाते
अपनी बाई आँख जो कि आटोमेटिक है
चला लेते हैं
और देखते ही देखते
अपनी दाल गला लेते हैं
मुझको इन्होने खूब जलाया
नर्स से सास तक
सब पर खूब चलाया
सफलता के गूढ़ मंत्र को
मैंने भी पहचान लिया
इनकी चलती देखकर
मैंने भी चलाने को ठान लिया
एक दिन
रगड़ रगड़ कर खूब नहाया
कंघी किया
पावडर लगाया
सज संवर कर
निकल पड़ा मैं
अवंतिका बाज़ार*
गली से निकलते ही
एक हसीना नज़र आयी
आव देखा न ताव
बड़े तबियत से
मैंने भी चलायी
बहुत दिनों से चलाने की प्रैक्टिस
छूटी हुई थी
परिणामतः
अगले ही पल मेरी नाक
टूटी हुई थी
हुआ यह कि
मैं चला तो रहा था बाई
पर बाई के साथ साथ
चल गयी दाईं
अर्थात मेरी दोनों आँखे बंद हो गयीं
आगे था बिज़ली का खम्भा
टक्कर से केवल नाक टूटी
यही है अचम्भा
.
नाक का टूटना
या नाक का कटना
अच्छा नहीं होता है
बड़ा बदनसीब होता है वो
जो नाक खोता है
तभी से मैंने तो सबक ले लिया
कुछ इस तरह मन को समझाया
चलाने की उम्र में नहीं चलाये
अब चलाओगे तो यही होगा
गलने वाली दाल तो गल जाती है
काली दाल गलाओगे तो यही होगा
किसी की चलती है तो चले
मेरी तो चलती ही नहीं है
गलाने की कोशिश तो की
पर क्या करू
ये दाल तो गलती ही नहीं है
दाल गलती ही नहीं है ----

*अवंतिका बाज़ार = हमारा लोकल बाज़ार

8 comments:

ओम आर्य said...

काली दाल गलाओगे तो यही होगा
किसी की चलती है तो चले
मेरी तो चलती ही नहीं है
गलाने की कोशिश तो की
पर क्या करू
ये दाल तो गलती ही नहीं है
दाल गलती ही नहीं है ----

bahut hi sundar kawita .......gahare bhaw ko darshate kawita.........sundar

Razia said...

प्रैक्टिस करके जाते तो ये नौबत तो न आती. हा -हा
सुन्दर कविता मज़ा आ गया

विवेक said...

बहुत दिलचस्प...मजा आ गया...

USHA GAUR said...

गलने वाली दाल तो गल जाती है
काली दाल गलाओगे तो यही होगा
यथार्थ के साथ साथ मज़ेदार भी --
बहुत सुन्दर

Udan Tashtari said...

शैल जी की चल गई तो कई चला ले गये.

Prem Farukhabadi said...

तभी से मैंने तो सबक ले लिया
कुछ इस तरह मन को समझाया
चलाने की उम्र में नहीं चलाये
अब चलाओगे तो यही होगा
गलने वाली दाल तो गल जाती है
काली दाल गलाओगे तो यही होगा
किसी की चलती है तो चले
मेरी तो चलती ही नहीं है
गलाने की कोशिश तो की
पर क्या करू
ये दाल तो गलती ही नहीं है
दाल गलती ही नहीं है ----

verma ji
agar daal gal gayi hoti to kya hota!!!

स्वप्न मञ्जूषा said...

दाल कुकर मैं काहे नहीं गलाते हैं
और नयन चश्मा के भीतर से
काहे नहीं चलाते हैं...

हा हा हा हा
सही बनी है कविता..
बधाई..

M VERMA said...

अदा जी
दाल तो कूकर मे ही गला रहा था पर कूकर ही गल गया पर दाल नही गली

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